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ते॑ऽरु॒णेभि॒र्वर॒मा पि॒शङ्गैः॑ शु॒भे कं या॑न्ति रथ॒तूर्भि॒रश्वैः॑। रु॒क्मो न चि॒त्रः स्वधि॑तीवान्प॒व्या रथ॑स्य जङ्घनन्त॒ भूम॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

te ruṇebhir varam ā piśaṅgaiḥ śubhe kaṁ yānti rathatūrbhir aśvaiḥ | rukmo na citraḥ svadhitīvān pavyā rathasya jaṅghananta bhūma ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ते। अ॒रु॒णेभिः॑। वर॑म्। आ। पि॒शङ्गैः॑। शु॒भे। कम्। या॒न्ति॒। र॒थ॒तूःऽभिः॑। अश्वैः॑। रु॒क्मः। न। चि॒त्रः। स्वधि॑तिऽवान्। प॒व्या। रथ॑स्य। ज॒ङ्घ॒न॒न्त॒। भूम॑ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:88» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:14» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:14» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

उक्त कामों से वे क्या पाते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे कारीगरी को जाननेहारे विद्वान् लोग (शुभे) उत्तम व्यवहार के लिये (अरुणेभिः) अच्छे प्रकार अग्नि के ताप से लाल (पिशङ्गैः) वा अग्नि और जल के संयोग की उठी हुई भाफों से कुछेक श्वेत (रथतूर्भिः) जो कि विमान आदि रथों को चलानेवाले अर्थात् अति शीघ्र उनको पहुँचाने के कारण आग और पानी की कलों के घररूपी (अश्वैः) घोड़े हैं, उनके साथ (रथस्य) विमान आदि रथ की (पव्या) वज्र के तुल्य पहियों की धार से (स्वधितीवान्) प्रशंसित वज्र से अन्तरिक्ष वायु को काटने (रुक्मः) और उत्तेजना रखनेवाले (चित्रः) शूरता, धीरता, बुद्धिमत्ता आदि गुणों से अद्भुत मनुष्य के (न) समान मार्ग को (जङ्घनन्त) हनन करते और देश-देशान्तर को जाते-आते हैं (ते) वे (वरम्) उत्तम (कम्) सुख को (आयान्ति) चारों ओर से प्राप्त होते हैं, वैसे हम भी (भूम) इसको करके आनन्दित होवें ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे शूरवीर अच्छे शस्त्र रखनेवाला पुरुष वेग से जाकर शत्रुओं को मारता है, वैसे मनुष्य वेगवाले रथों पर बैठ देश-देशान्तर को जा-आ के शत्रुओं को जीतते हैं ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

तैस्ते किं प्राप्नुवन्तीत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

यथा शिल्पविदो विद्वांसः शुभे अरुणेभिः पिशङ्गै रथतूर्भिरश्वै रथस्य पव्या स्वधितीवान् रुक्मश्चित्रो नेव जङ्घनन्त ते वरं कमायान्ति प्राप्नुवन्ति तथा वयमपि भूम ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ते) शिल्पविद्याविचक्षणाः (अरुणेभिः) आरक्तवर्णैरग्निप्रयोगजैः (वरम्) श्रेष्ठम् (आ) आभिमुख्ये (पिशङ्गैः) अग्निजलसंयोगजैर्वाष्पैः पीतैः (शुभे) श्रेष्ठाय व्यवहाराय (कम्) सुखम् (यान्ति) गच्छन्ति (रथतूर्भिः) ये रथान् विमानादियानानि तूर्वन्ति शीघ्रं गमयन्ति तैः (अश्वैः) आशुगमनहेतुभिरग्निजलकलागृहरूपैरश्वैः (रुक्मः) देदीप्यमानः (न) इव (चित्रः) शौर्यादिगुणैरद्भुतः (स्वधितीवान्) स्वधितिः प्रशस्तो वज्रो विद्यते यस्य (पव्या) वज्रतुल्यया चक्रधारया (रथस्य) विमानादियानसमूहस्य (जङ्घनन्त) अत्यन्तं घ्नन्ति। लडर्थे लङ्। छन्दस्युभयथेति आर्द्धधातुसंज्ञयाऽकारयकारयोर्लोपः अडभावश्च। (भूम) भवेम। अत्र लुङ्यडभावश्च ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा शूरवीरः सुशस्त्रवान् पुरुषो वेगेन गत्वागत्य शत्रून् हन्ति, तथैव मनुष्या वेगवत्सु यानेषु स्थित्वा देशदेशान्तरं गत्वा शत्रून् विजयन्ते ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा शूरवीर चांगली शस्त्रे बाळगून वेगवान बनून शत्रूंचे हनन करतो. तशी माणसेही वेगवान रथात बसून देशदेशांतरी जाणे येणे करून शत्रूंना जिंकतात. ॥ २ ॥